क्यों छोड़ा था तूने अपना ये गाँव जरा लिखना–!!!

शहर जाकर ऐ मेरे दोस्त अपना पता लिखना !
क्यों छोड़ा था तूने अपना ये गाँव जरा लिखना !!

क्या अब स्वाद नही रहा चूल्हे की जली रोटी में !
क्यों खफा हुआ इस आबो हवा से जरा लिखना !!

माना के चंद कागज़ के टुकड़े की कमी थी यहाँ पर !
मिल जाए गर सुकून मेरे गावों जैसा जरा लिखना !!

कहने को होंगे बहुत से खजाने कुबेर के तेरे शहर मैं !
मिल जाए मिटटी में खुशबु यहाँ जैसी जरा लिखना !!

यंहा रोज़ लड़ता था माँ से, बात-बात पे बिगड़ता था !
पड़ी वो मार चिमटे की आये जो याद जरा लिखना !!

सुना है बहुत सलीका है तेरे शहर में जिंदगी जीने का !
सो सके चैन की नींद जिस दिन वहां पर जरा लिखना !!

खान पान के मिलेंगे बहुत तरीके शहर में नए नए !
बुझा सके प्यास कुए के नीर जैसी तो जरा लिखना !!

कहते है बड़ी मन लुभावन होती है शहर की चकाचौंध !
दिये सी उभरती परछाई तू देख सके, तो जरा लिखना !!

वैसे तो हमदर्द बहुत होंगे तेरे इर्द गिर्द तुझे सँभालने को !
मिल जाए वफ़ादार तेरे घर के पशुओ जैसा जरा लिखना !!

यूँ तो रहोगे मशगूल बहुत अपने आपमें भूलकर सब कुछ !
कभी तन्हाई में आये याद इस यार की, तो जरा लिखना !!

शहर जाकर ऐ मेरे दोस्त अपना पता लिखना !
क्यों छोड़ा था तूने अपना ये गाँव जरा लिखना !!

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